समता और संतोष
समता और संतोष
(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)
एक यात्री ने अपने स्थान पर पहुँचने के बाद रिक्शा वाले के हाथ में अपना पर्स सौंपते हुए कहा कि तुम्हारे जितने पैसे बनते हों, इसमें से निकाल लो। वह असमंजस में पड़ गया। उसके जीवन में ऐसा प्रथम मौका था। उसने पर्स में देखा कि उसमें बड़े-बड़े नोट भरे हुए थे। उसने 100 रुपए का नोट निकाला और फिर उसे वापिस पर्स में रखकर दस रुपए का नोट निकाला।
यात्री ने पूछा - तुमने 100 रुपए का नोट वापस क्यों रख दिया?
उसने कहा - यदि आप मेरे ऊपर विश्वास रखते हैं, तो क्या मैं अपनी सज्जनता, अपना सद्चारित्र नहीं दिखा सकता?
यात्री ने उसे गर्व से अपने सीने से लगाया और कहा कि आज देश को ऐसे ही व्यक्तियों की आवश्यकता है और उस यात्री ने उसके हाथ में 100 रुपए का नोट थमा दिया। उस समय दोनों के नयन अश्रुपूरित हुए और रिक्शा वाले ने उसके चरण छूकर उससे विदा ली।
वास्तव में ऐसा समता और संतोष का स्वभाव कैसे पाया जा सकता है?
प्रतिकूलता में अनुकूलता को अनुभव करना सीखो। संतोषी व्यक्ति को अपना अल्प धन भी अधिक लगता है लेकिन असंतोषी व्यक्ति को अधिक धन भी बहुत कम लगता है। चींटी के बिल में दो-तीन बूंद पानी का आ जाना भी बाढ़ जैसा लगता है। शरीर के प्रति मोही व्यक्ति को बरगद के नीचे छोटा-सा फल गिरने पर भी वह बड़े पत्थर जैसा लगता है। समताधारी दुःख को भी सुख में ढाल लेता है। यदि अंतःकरण में समता भाव है तो प्रतिकूलता में भी वह अपने भाग्य का फल मान कर शांत रहता है। वह स्वयं को उत्तरदायी ठहराकर सुख की अनुभूति करता है और यदि अंतःकरण में विषय-कषाय का भाव है, तो वह सुख के समय भी दुःखी रहता है कि मुझे इससे अधिक मिलना चाहिए या मुझे बहुत कम मिला है। मेरे साथ अन्याय हुआ है।
यदि दुःख को सहज स्वीकार कर लें तो सुख की अनुभूति होती है और दुःख को अस्वीकार करें तो अत्यंत अल्प दुःख भी महा दुःख बनकर भयंकर लगने लगेगा। दुर्योधन के पास धन, वैभव, ऐश्वर्य, जमीन, जायदाद की क्या कमी थी? ज़रा भी नहीं। मगर उसके असंतोष ने महाभारत खड़ी कर दी, सारे खानदान को मिटा डाला।
ऐसा लगता है कि यह युग भी दुर्योधन का युग चल रहा है। डॉक्टर, वकील, नेता, व्यापारी, शिक्षक सब उसके ही खानदान के नज़र आते हैं। आदमी को पैसे के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं देता। पत्नी कहती है कि मुझे तुम्हारा पैसा नहीं, समय चाहिए।
अपने मन को समझाना बहुत कठिन है। मनुष्य रहता तो धरती पर है और कल्पना चंद्रमा की करता है। वह किसी के अंतरंग तक पहुंच नहीं पाता और अंतरिक्ष में जाने की तैयारी हो रही है। जीवन को मंगल बना नहीं पाया और मंगल ग्रह की उड़ान भर रहा है। पालतू कुत्ते के साथ खेलने का समय है, उसे घूमाने का समय है, मगर अपने बच्चे के सिर पर हाथ रखने का समय नहीं है। उसके साथ घूमने का समय नहीं है।
हम चालाक व्यक्ति से धोखा खाने को तैयार हैं, मगर ईमानदार व्यक्ति पर विश्वास करने को तैयार नहीं हैं। ऐसे तुच्छ मन के साथ जीने वाला कभी सुखी नहीं रह सकता है।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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