मन ही मन को ऊपर उठाता है

मन ही मन को ऊपर उठाता है

(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)

हर आदमी यह कहते हुए पाया जाता है कि मैं अपने मन से बहुत दुःखी हूँ। थोड़ी देर के लिए भी मेरा मन स्थिर नहीं होता। ईश्वर की आराधना या मंत्रों का जाप करने बैठता हूँ, तो यह बंदर की तरह नहीं बल्कि उससे भी ज्यादा चंचल हो जाता है और मेरा मन भक्ति आदि से हट जाता है। लेकिन शायद उन्हें यह नहीं मालूम कि मन हमारे शरीर में हमेशा सक्रियता से चलने वाला एक बेशकीमती यंत्र है। इसके बिना हम सही और गलत दिशा का भी निश्चय नहीं कर पाते।

कई लोग कहते हैं कि मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोई।

यदि यह मन शांत हो जाए तो यह हमें महात्मा से मिलाता है और प्रशांत हो जाए तो परमात्मा का साक्षात्कार कराता है। यदि इस मन को तीव्र बुद्धि का आधार मिल जाए और हमारी सोच सकारात्मक हो जाए, तो यही मन मंत्र की सहायता से ऊपर उठने लगता है। मन जब मंत्रों का चिंतन करता हुआ ध्वनियुक्त या मौन रह कर जाप करता है, तब यह मन एकाग्र होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। लक्ष्य को पाने वाला मन ही ईश्वर बन जाता है और उत्तम लक्ष्य को पाने के लिए उद्यमशील मन ही हमें देवता के समान बना देता है। एक खाली गुब्बारा स्वभाव से जमीन की ओर गिरता है लेकिन उसे यदि हीलियम गैस से भर दिया जाए तो वह आसमान को छूने के लिए भी उद्यत हो जाता है। वैसे ही मन को महामंत्र मिल जाए, तो मन परमात्मा बनने के लिए भी उद्यमशील हो जाता है।

जैसे एक निरंतर चलने वाली कार को एक राह पर गंतव्य की ओर मोड़ा जा सकता है लेकिन उसे रोका नहीं जा सकता, वैसे ही मन को ईश्वर की आराधना के बल पर मोक्ष की राह पर मोड़ा तो जा सकता है लेकिन रोका नहीं जा सकता। आकाश में चलते हुए हवाई जहाज की दिशा को निर्धारित लक्ष्य की ओर मोड़ा जा सकता है पर रोका नहीं जा सकता। उसी प्रकार मन को मोड़ने के लिए एक संकल्प की आवश्यकता होती है।

यदि हम मन को संकल्प और मंत्र का सहारा न दे सकें, तो यही मन हमें संसार की खाई रूपी गर्त में या नरक में पटक देगा, क्योंकि मन का स्वभाव है नीचे गिरना और अपने साथ दूसरों को भी गिराना। अतः हम सभी मन को मंत्र की शक्ति दें तब वह मन हमारे लिए उत्थान का कारण बन सकता है।

ओऽम् शांति सर्व शांति!!

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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