चित्र नहीं चिंतन सुधारें
चित्र नहीं चिंतन सुधारें
(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)
प्रायः सभी का सुबह उठकर पहला काम यही होता है कि वे दर्पण के सामने जाकर खड़े हो जाते हैं, अपना चित्र देखने के लिए। क्या इसी प्रकार कभी तुमने सुबह उठकर अपने चरित्र का भी आकलन किया है? सबसे पहले अपने द्वारा किए गए पुण्य और पाप के फल को जानो। फिर पाप कर्मों को छोड़ने की प्रतिज्ञा करो और पुण्यकार्यों में वृद्धि करने का संकल्प करो। पापकार्य के फल जाने बिना हम पाप से ग्लानि उत्पन्न नहीं कर सकते। हमारा मन ही पुण्य और पाप का स्त्रोत है।
मनः एवं मनुष्याणां कारणं पुण्यपापयोः।
मन के अच्छे-बुरे परिणामों से ही जीव संसार का निर्माण करता है।
अपने ही दुष्परिणामों के प्रतिफल से यह जीव दुःख पाता है। जैसे हमारी पीठ हमें दिखाई नहीं देती, इसी प्रकार हमारे परिणाम भी हम स्वयं जान नहीं पाते। अतः अपने उन भावों के परिणामों को जानने के लिए शास्त्र स्वाध्याय करना आवश्यक है। शास्त्र दर्पण के समान होते हैं। जैसे स्वच्छ दर्पण में हमें अपना चित्र स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, उसी प्रकार शास्त्र आत्मा के विभिन्न परिणामों को दर्शाते हुए उसकी स्थिति स्पष्ट कर देते हैं कि तुम्हारे चिंतन के क्या परिणाम हो सकते हैं।
यह जीव अब किस योनि से आया है और अगले भव में कहाँ उत्पन्न होगा? कितनी अवगाहना लेकर उत्पन्न होगा? यदि वर्तमान में यह जीव मनुष्य पर्याय में है, तो वह नियम से मन सहित होगा और समस्त शारीरिक, मानसिक, वाचनिक आदि सुविधाओं से युक्त होगा। जो सुविधाएं एकेन्द्रिय से चार इन्द्रिय जीवों तक में प्राप्त नहीं थी, वे सब मनुष्य को प्राप्त हैं। ज्ञान के क्षेत्र में मनुष्य से श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करने वाला और देने वाला भी कोई नहीं हो सकता। क्योंकि मनुष्य का ज्ञान संयम सहित है, जबकि देवों में संयम नहीं होता।
आत्मज्ञान जन्म से नहीं होता। पंचम काल में हर मनुष्य मिथ्यादृष्टि ही पैदा होता है। आत्मा का भोजन ज्ञान है, लेकिन वह भी सम्यक् ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान भी चारित्र से सहित होना चाहिए। यदि चारित्र है तो ही वह ज्ञान उपयोगी कहलाता है, क्योंकि ज्ञान से ही ध्यान लगता है।
आत्मध्यान के लिए, मन में जो भाव उत्पन्न हो गए हैं, उनको रोकना और अपने में लगाना पड़ता है, क्योंकि मन ही आत्मा की शक्ति को ऊपर ले जा सकता है और मन चाहे तो नीचे गिरा सकता है। मन में जो विचार उत्पन्न हो रहे हैं, वही वचनों में प्रगट होते हैं और वचनों से काया में आते हैं।
मन के विचारों पर यदि रोक लगा दी अर्थात् संयम रूपी ब्रेक लगा दिया तो वह किसी से नहीं टकराएगा। जैसे यदि गाड़ी में ब्रेक नहीं है तो वह कहीं भी टकरा सकती है, इसी प्रकार जीवन में संयम भी मन को रोकने के लिए बहुत जरूरी है। क्योंकि जीवन में संयम धारण करके ही साधु व संत महात्माओं ने इतना त्याग किया, तपस्या की। इसलिए जीवन में पाप को जानें पुण्य का अर्जन करें और अपने चिंतन को सही दिशा में ले जाएँ। तभी आपकी आत्मा परमात्मा बन पाएगी।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
Gazab
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