आत्मनिंदा वंदनीय है, निंदनीय नहीं
आत्मनिंदा वंदनीय है, निंदनीय नहीं
(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)
संसार में जिस बात को सुनकर आदमी भड़क उठे या घृणा कर उठे, वह है किसी के द्वारा की गई अपनी निंदा या आलोचना। वैसे किसी हद तक यह सुरक्षित कवच का भी काम करती है। आदमी अपनी निंदा और आलोचना के डर से ही कई बार लोक व्यवहार के विरुद्ध कार्य करने से बच जाता है कि लोग क्या कहेंगे?
यद्यपि ग़लत कार्य के लिए दंड विधान की व्यवस्था भी है। यदि हम किसी का अपमान करते हैं तो हम पर अदालत में मानहानि का दावा भी हो सकता है और जातिसूचक शब्द तो किसी को कह ही नहीं सकते। केवल अनुसूचित जाति ही नहीं, यदि कोई हमारे धर्म का अपमान करने वाले शब्दों का भी प्रयोग करता है, तो वह एक बड़े आन्दोलन का रूप ले सकता है, लेकिन यह सब दूसरों के द्वारा की गई निंदा से ही घटित होता है।
यदि हम स्वयं अपने ही अवगुणों की निंदा, गर्हा या आलोचना करें तो किसी भी अदालत में ऐसा कानून नहीं है कि हमें कोई दंड दे सके। अपनी निंदा करने से दुष्कर्मों की सजा मिलने के स्थान पर कम हो जाती है, बढ़ नहीं सकती। अपनी स्वयं की निंदा करने का मतलब है कि वह आत्मग्लानि से भरा हुआ है कि मैंने यह काम ग़लत किया है। मैं इसका प्रायश्चित करना चाहता हूँ। समाज या मित्रों का समूह भी आत्म निंदा करने वालों की प्रशंसा करता है।
आत्म निंदा करने से व्यक्ति रूई की तरह हल्का हो जाता है और अंत में जाकर सर्व लोक का ज्ञाता हो सकता है और परमात्मा की पदवी को धारण कर सकता है। हम जिसकी निंदा करेंगे तो हो सकता है कि वह स्वयं को सुधार ले और स्वच्छ हो जाए, लेकिन हम निंदा के कीचड़ में लिप्त होकर कर्ममल से और भी गंदे हो जाएंगे। औरों की निंदा का भाव करना, शरीर व मन में पलने वाला वह मवाद है, जो निकालना भी ज़रूरी होता है, चाहे हम बिना किसी दुर्भावना के उसे सुधारने के लिए ही क्यों न कर रहे हों?
इतना ही नहीं, यदि हम वह मवाद नहीं निकालेंगे, तो अंदर ही अंदर बढ़ते-बढ़ते वहाँ घोर पीड़ा होने लगती है लेकिन घाव में से मवाद निकलते ही आराम महसूस होता है। जैसे शरीर में मवाद पैदा होने का अर्थ है - श्वेत व लाल रक्त कणिकाओं की लड़ाई से हुई टूट-फूट का कचरा इकट्ठा होना। ठीक वैसे ही मन में निंदा का भाव आना दूसरों के प्रति अपने गंदे विचारों की उपज है। यदि हमारे विचार अच्छे होंगे तो दूसरों के प्रति भी हमारे मन में कोई बुरा भाव नहीं आएगा।
स्वयं की निंदा करने से अपने शरीर में खून की गति तेज नहीं होती, लेकिन औरों की निंदा करने से खून की गति तेज हो जाती है जो हमें संक्लेशित करती है। औरों की निंदा करने से हमारी शारीरिक व मानसिक शक्ति पर जबरदस्त घात होता है। यहाँ तक की पूर्व की स्मरणशक्ति भी नष्ट हो जाती है।
पर निंदा वह गंदा खून है, जो स्वच्छ खून को भी गंदा करने लगता है। पर निंदा के स्थान पर शून्यता उत्पन्न हो जाती है। यदि कोई आँख, हाथ, वचन या मन से पर निंदा करे, तो उसके वे अंग कमज़ोर हो जाते हैं। आँखों से दिखाई देना बंद हो जाता है, हाथ काम करना बंद कर देते हैं, बोलना चाहें तो बोल नहीं पाते और यदि केवल मन में भी भाव आ गया, तो वह धर्म-कर्म सब भूल जाता है।
पर निंदा, गंदी नाली का वह गंदा पानी है, जिसे कोई छूना तक पसंद नहीं करता। दूसरे की कही बात पर उसकी निंदा करना अहंकार का विकृत रूप है। कोई भी व्यक्ति शत प्रतिशत सही नहीं हो सकता, हम भी नहीं। अतः हमें केवल स्वयं की आलोचना करनी चाहिए, औरों की निंदा नहीं करनी चाहिए। इसी में अपना कल्याण है, आनंद है। इसी में जीवन की स्वस्थता, स्वच्छता व सफलता का रहस्य छिपा हुआ है।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
विनम्र निवेदन
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धन्यवाद।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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