आत्म कल्याण

आत्म कल्याण

(परम पूज्य उपाध्याय श्री विरंजनसागर महाराज की लेखनी से)

हमारी आत्मा का कल्याण तभी संभव है, जब हमें उन निमित्तों के बारे में ज्ञान हो जिन से आत्मा का घात होता है और जिन निमित्तों से कर्म का बंध होता है। वे सारे के सारे निमित्त आत्म घात के हेतु होने से हिंसक माने जाते हैं। केवल इन निमित्तों का द्रव्य-सेवन करने से ही कर्मों का बंध नहीं होता अपितु भावों द्वारा उन द्रव्य के पास पहुंचने से भी बंध हो जाता है।

जिस प्रकार टंकी में जैसा पानी भरा होगा, वैसा ही नल में से पानी आएगा। यह नल का दोष नहीं है कि वह गंदा पानी दे रहा है। गंदा पानी टंकी में भरेगा तो गंदा पानी ही बाहर आएगा। न यह पानी का दोष है, क्योंकि वह पानी भी तो हमने ही भरा था। इसी प्रकार हम जैसे कर्म करेंगे वैसे ही कर्मों का आत्मा के साथ बंध होगा और वे ही समयानुसार उदय में आएंगे। हम दूसरों को दोष क्यों दें? इससे तो बेहतर है कि हम अपने परिणामों को निर्मल बनाएँ।

जब तक परिणति निर्मल नहीं बनेगी, तब तक आपकी आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता और आपको मोक्ष नहीं मिल सकता। भगवान आपको मोक्ष नहीं दिला सकता। हमें भगवान का अवलंबन लेना होगा, तभी भक्ति कर सकते हैं और भक्ति करके अपनी परिणति को बदलेंगे, तभी मोक्ष प्राप्त होगा। बिना भाव बदले, बिना परिणति बदले केवल क्रिया करने से आत्म कल्याण नहीं होता। क्रिया के साथ-साथ भाव भी बदलने होंगे, तभी आप मोक्षमार्ग पर आगे कदम बढ़ा सकते हैं।

आदिनाथ भगवान इस युग के प्रथम तीर्थंकर हैं और हम आज के दिन ही उनका जन्म कल्याणक मना रहे है। जब उन्होंने जन्म लिया तब लोग जीवन यापन के विषय में कुछ नहीं जानते थे। आदि कुमार ने राज्यावस्था में लोगों को छह कर्तव्यों के पालन का उपदेश दिया ताकि वे अपनी जीवन चर्या को अपने अनुकूल बना सकें। उन्होंने कृषि करना सिखाया और शिल्प विद्या, कला, वाणिज्य, अंक विद्या के साथ-साथ असि-मसि का ज्ञान दिया। और इतना ही नहीं, स्वयं श्रावकों के हाथ से नवधा भक्ति सहित आहार दान लेकर साधु-संतों के लिए आहार चर्या का मार्ग खोला।

तीर्थंकर जन्म से मति, श्रुत, अवधि- इन तीन ज्ञान के धारी होते हैं। उनका जन्म हमारे लिए कल्याण का कारण बन जाता है। इसीलिए जब उनका जन्म होता है, तब एक पल के लिए तीनों लोकों में सभी जीवों को सुख की अनुभूति होने लगती है। वे जन्म लेकर अपनी आत्मा को परमात्मा बना लेते हैं। ऐसे भगवान आदिनाथ ही इस युग के प्रथम तीर्थंकर हैं। धर्म तो अनादि काल से चला आया है और अनन्त काल तक चलेगा। यदि हम आत्म कल्याण चाहते हैं तो हमें केवल बाहर ही पूजा-पाठ पर निर्भर नहीं रहना चाहिए और अपने भावों को पवित्र बना कर ऊँचा बनाना चाहिए।

ओऽम् शांति सर्व शांति!!

विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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