जैसा अन्न वैसी नीयत
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
जैसा अन्न वैसी नीयत
जैसे दीपक अंधकार को खाता है और काजल को जन्म देता है वैसे ही मनुष्य भोजन को खाता है और विचारों को जन्म देता है। खाए गए अन्न के अनुसार मनुष्य की नीयत अच्छी या बुरी बनती है। हमारे द्वारा ग्रहण किया गया आहार क्रमशः सप्त धातुओं में परिवतित होता हुआ हमारे विचारों को भी प्रभावित करता है। अतः शुद्ध विचारों के लिए शुद्ध आहार का होना एक अनिवार्य शर्त है।
नेक नीयत की कमाई से भोजन करने वालों का आरोग्य, आयुष्य, बुद्धि और पुण्य बढ़ता है।
आज अत्याचार, भ्रष्टाचार, उद्दण्डता, नृशंसता आदि मानसिक आवेगों का ताण्डव-नृत्य अनेक मानसिक एवं शारीरिक उपाधियों को जन्म देता है। यदि मनुष्य अपनी नेक नीयत बरकरार रखना चाहता हो तो उसे आहार की सात्विकता का ख़्याल जरूर रखना चाहिए।
एक त्यागी महात्मा थे। जंगल में वृक्ष के नीचे उन्होंने अपना निवास स्थान बना रखा था। ज्ञान-ध्यान आदि धर्म क्रियाओं में वे दिन-रात लीन रहते थे। एक दिन जंगल में एक सम्राट शिकार की खोज में भटकते हुए उसी जंगल में जा पहुँचा। उस समय महात्मा जी यौगिक क्रियाओं में संलग्न थे।
सम्राट ने साष्टांग नमस्कार करते हुए पूछा - ”महात्मन्! आप अकेले इस भीषण अटवी में क्यों निवास कर रहे हैं?“
महात्मा ने कहा - ”राजन्! जो आनन्दानुभूति मुझे इस निर्जन वन में अकेलेपन में हो रही है, वैसी अन्यत्र नहीं हो सकती।“ सम्राट ने कहा - ”योगीराज! ऐसी क्या बात है? आप मेरे महल में पधारिये। वहाँ आपको सभी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध होंगी। वहाँ आपकी उत्तम परिचर्या होगी। कृपा करके आप मेरी कुटिया को कुछ दिनों के लिए पावन कीजिए।“
राजा की भक्ति एवं अति आग्रह को देखकर महात्मा जी उसी समय राजा के साथ राजमहलों में आ गए। खान-पानादि समस्त दैनिक एवं धार्मिक क्रियायें वहाँ सानन्द होने लगी। महात्मा जी को वहाँ रहते हुए छः महीने हो गए। राजा भी अपना अधिक समय महात्मा जी की सेवा में व्यतीत करने लगे। एक दिन महारानी अपना हार उतारकर दोबारा पहनना भूल गई। अनायास महात्मा की नजर उस हार पर पड़ी। उस हार पर दृष्टि पड़ते ही उनकी नीयत बदल गई और वे उस हार को लेकर जंगल में भाग गए। उधर हार न मिलने से सम्राट एवं साम्राज्ञी चिन्तित हो गए। हार का पता लगाने के लिए काफी प्रयत्न किए गए लेकिन हार नहीं मिलने से रानी के हृदय में निराशा छा गई।
इधर लुकते-छिपते महात्मा जी उसी परिचित जंगल में जा पहुँचे और क्षुधा से पीड़ित होकर इधर-उधर घूमने लगे। जंगल में खाने के लिए फलों के अतिरिक्त और क्या मिल सकता था? महात्मा ने डटकर उन जंगली फलों को खा लिया। कुछ समय बाद उनको खूब वमन हुआ और उनका पेट खाली हो गया। उनकी अंतरात्मा कहने लगी - ‘‘अरे योगी! क्या तू वास्तव में योगी है? नहीं, तू योगी नहीं, पक्का चोर है। तूने रानी का हार चुराया है। तुझे धिक्कार है, बार-बार धिक्कार है।“ इस तरह वह पश्चाताप से भर गये।
विचारों में परिवर्तन आने पर वे सुबह का इन्तजार करने लगे। जैसे ही सूरज की पहली किरण निकली वे दौड़े-दौड़े राजमहल में पहुँचे और सम्राट को हार दे दिया। सम्राट चौंक उठा और योगी के चरणों को प्रणाम करता हुआ विनम्र स्वर में बोला - ‘‘महात्मन्! आपके द्वारा किए गए इस कृत्य के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकता था। यदि हार वापस देना था तो ले ही क्यों गये थे?’’
योगी ने कहा - ‘‘नराधीश! क्या कहूँ? छः महीने तक राजसी अन्न खाने से मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। मन के विकृत भावों के कारण मैं आपका हार चुराकर ले गया। जब मैं जंगल में गया और उस दूषित अन्न से मेरा पेट रिक्त हुआ, त्यों ही मेरी अन्तरचेतना जाग उठी। विचारों में सहसा परिवर्तन आया और मैंने अपने आपको धिक्कारते हुए इस घृणित कार्य को घृणा की दृष्टि से देखा।
सारी रात्रि मैंने इसी चिन्तन में व्यतीत की। मेरे विचारों में सहसा इतना परिवर्तन कैसे हो गया? आखिर विचारों का उत्थान से पतन और पुनः पतन से उत्थान कैसे होता है, यह मैंने अपने जीवन में देखा और मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मेरे लिए न राजभवन में जाना श्रेयस्कर था और न वहाँ का अन्न खाना ही हितावह था।
जब तक मेरे पेट में राजघराने के अन्न का अंश रहा तब तक मेरे विचारों में मलिनता रही। जैसे ही उस अन्न का प्रभाव खत्म हुआ वैसे ही मेरे विचारों में पवित्रता एवं नैतिकता का संचार होने लगा और मुझे रात्रि के उस नीरव क्षण में इस बात का अहसास हुआ -
‘‘जैसा अन्न वैसी नीयत’’
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
सही है
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