वास्तविक सुख की खोज

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

वास्तविक सुख की खोज

सब लोग धर्मात्मा हैं, केवल इसलिए मंदिर नहीं जाते। उनके मन में बहुत सी अपूर्ण इच्छाएं होती हैं। प्रायः वे उनकी पूर्ति की कामना मन में लिए रोज़ मंदिर की चौखट पर माथा टेकने जाते हैं। इसीलिए मैं कहता हूँ कि जो लोग मंदिर में पूजा-पाठ करते हुए दिखाई देते हैं, उन्हें एकदम धार्मिक या धर्मात्मा मत समझ लेना। ज़रा उनके अंतरंग में झांक कर देख लेना कि उनकी पूजा का लक्ष्य क्या है? तुम पाओगे कि कोई भगवान से औलाद मांग रहा है, कोई अपनी दुकान चलाने की तरकीब पूछ रहा है, कोई अपनी पत्नी को धैर्यवान और विवेकशील बनाने के लिए प्रार्थना कर रहा है, कोई अपने पति के अत्याचारों का रोना रो रही है, कोई अपनी सास की शिकायतें कर रही है, कोई अपने अदालती झगड़ों को सुलझाने का आशीर्वाद मांग रहा है, अर्थात् सभी लौकिक या भौतिक अभीष्ट की पूर्ति की कामना से पूजा-पाठ कर रहे हैं। तो देख लिया प्रभु को कितना चाहते हैं लोग! सुख की कामना सब को है, मोक्ष की कामना किसी को नहीं है।

एक युवक ने पूछा कि संसार का हर इंसान दुःखी क्यों है?

मैंने कहा कि उसका पड़ोसी सुखी है, इसलिए संसार का हर इंसान दुःखी है।

पराधीनता दुःख का कारण है और स्वाधीनता सुख का कारण है।

व्यक्ति को खुशी मिलती है - दूसरे को गिराने में, दूसरे को उजाड़ने में, बर्बाद करने में, तबाह करने में, उसका जीना हराम करने में; क्योंकि हमारा सुख है दूसरे को दुःखी करने में। 

वास्तविक सुख का उद्गम स्थल हृदय है। जैसे नर्मदा का उद्गम स्थल अमरकंटक, मध्यप्रदेश है। जैसे ही चित्त शांत होता है, सुख का झरना फूटने लगता है। सुख न तो कभी आकाश से टपकता है, न पाताल से प्रकट होता है, न झाड़ पर लटकता है। यह तो आत्मा से उत्पन्न होता है। सुख न ही सत्ता में, न काम में, न अर्थ में, न संसार में, न लड़ाई-झगड़े में विद्यमान है। यह मिलेगा तो केवल अपने में, अपनी आत्मा में ही मिलेगा।

जैसे फूल की सुगंध फूल में, शक्कर की मिठास शक्कर में, दीपक का प्रकाश दीपक में, मिर्ची का तीखापन मिर्ची में, चन्द्रमा की शीतलता चन्द्रमा में ही प्राप्त होती है, वैसे ही आत्मा का सुख आत्मा में रमण करने से ही मिलता है। आत्मा में आनन्द का अनन्त सागर हिलोरें ले रहा है, सुख का अक्षय भंडार संचित है और शांति का असीम कोष विद्यमान है।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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