निन्दा
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
निन्दा
महानुभावों! निन्दा का अर्थ है - दूसरे की बुराई करना। हम दूसरे की बुराई कर रहे हैं तो यह निश्चित मान कर चलो कि अपने बुरे कर्मों को बांध रहे हैं। किसी के प्रति परोक्ष में बुरे वचन कहने से तो अच्छा है कि हम उसके दोष उसके सामने कहें और उसी से कहें। किसी के पीठ पीछे बुराई करना तो माँस भक्षण के समान है। किसी की निन्दा करना ही नहीं, निन्दा सुनना और करने वाले की प्रशंसा करना भी महापाप है क्योंकि इससे कृत, कारित और अनुमोदना का पाप लगता है।
हमारे मन में कषाय उत्पन्न होती है और हम जन्म-जन्म का वैर बाँध लेते हैं जो हमारे संसार परिभ्रमण का कारण बनता है। इसलिए न तो हमें किसी की निन्दा करनी चाहिए और न ही कटु शब्द बोलने चाहिए। इतना ही नहीं, यदि कोई हमसे आकर कहे कि वह व्यक्ति तुम्हारी बुराई कर रहा था तो भी हमें अपने परिणामों में शुद्धता रखनी चाहिए। ऐसी प्रतिक्रिया न दें कि आवेश में आकर तर्क करने लगें कि वह जो कह रहा है, वह सही नहीं हैं या आधार हीन हैं अपितु उसकी बातों को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए और यदि हमें लगे कि वास्तव में यह बुराई हमारे अन्दर है तो उस पर मनन करें और उसे दूर करने का प्रयास करें। यदि हमें लगे कि वह असत्य वाचन कर रहा है तो उस की बात पर ध्यान ही न दें। अपने मन की शांति भंग न होने दें और एक कान से सुनें और दूसरे कान से निकाल दें।
इसी प्रकार हमें सच्चे देव, गुरु, शास्त्र पर भी अटूट श्रद्धा होनी चाहिए। गुरुओं की निन्दा तो भूलकर भी नहीं करनी चाहिए और न ही सुननी चाहिए क्योंकि हम सब पापों का प्रायश्चित कर सकते हैं पर गुरु-निन्दा के पाप से मुक्त नहीं हो सकते। जैसे सीता ने पूर्व भव में क्षण मात्र के लिए गुरुओं व आर्यिका की निन्दा की थी तो अगले भव में स्वयं भी इस कलंक से मुक्त न हो पाई और अनेक कष्टों को सहन करना पड़ा। हमारे शास्त्रों में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे हमें यह शिक्षा मिलती है कि ”पर निन्दा और झूठ तज।“
अतः हे बन्धुओं! हमेशा हित, मित, प्रिय वचन बोलो। कटु, कठोर, निन्दायुक्त वचनों का प्रयोग करके दूसरों के दिल में अपने लिए नफरत पैदा न करो। सबसे प्रेमपूर्ण व्यवहार करो।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
Bahut Sundar
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