ग़लतफहमी का मूल

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

ग़लतफहमी का मूल

ग़लतफहमी के मूल में संदेह कारण बनता है।

महानुभावों! ग़लतफहमी के मूल में संदेह ही कारण बनता है। व्यक्ति दूसरों के प्रति अहित की भावना रखने के कारण मन में दूषित विचारों को जन्म देता रहता है। कलुषित आशंकाएं उत्पन्न हो जाती हैं। उसकी सोच का आधार उसके प्रति पहले से बनी हुई धारणाएं होती हैं।

एक गलती के गर्भ से ही दूसरी गलती का जन्म होता है। उसका सारा जीवन गलत मार्ग पर चलने लगता है। उसकी हर बात में संदेह करने लगता है जो बढ़ते-बढ़ते वैमनस्य में बदल जाता है। सच्ची दोस्ती, दुश्मनी में परिवर्तित हो जाती है। कटु वचन, हिंसा, मारकाट तक बात पहुँच जाती है। मानसिक तनाव बढ़ जाता है।    

ग़लतफहमी का कुफल मुकदमेबाजी के रूप में दिखाई देने लगता है और पैसे की बर्बादी अलग से। मुनि श्री कहते हैं कि शंका के वृक्ष पर निन्दा और चुगली के विषफल उगने लगते हैं। चुगली करना भी एक प्रकार से मानसिक रुग्णता की निशानी है, जिसमें चुगलखोर गुप्त रूप से दूसरों की निन्दा करने लगता है। वह अपने आप को श्रेष्ठ घोषित करने के लिए दूसरों की तथाकथित राई के बराबर गलती को पर्वत के समान बढ़ा-चढ़ा कर बताता है। 

दोनों पक्षों के विचारों में टकराहट पैदा हो जाती है और वे आपस में लड़ने लगते हैं। उनकी लड़ाई का तमाशा वह खुद भी देखता है और ओरों को भी दिखाता है। ऐसे धूर्त व्यक्तियों को दो मित्रों की लड़ाई में ही आनंद मिलता है।

मुनि श्री आगे कहते हैं कि चुगलखोर की एक विशेषता होती है। वह स्वयं दोनों पक्षों की दृष्टि में ईमानदार, भला और श्रेष्ठ बनना चाहता है जबकि वह जो चुगली या निन्दा करता है उसमें अधिकांश बातें मिथ्या अर्थात् झूठी होती हैं। वैसे देखा जाए तो लोगों को भी निन्दा सुनने में आनंद आता है। लोग दूसरों की कमज़ोरियों को बड़े चाव से सुनते हैं और मन ही मन अति प्रसन्न होने लगते हैं। इसके अतिरिक्त चुगलखोर की एक विशेषता यह भी होती है कि वह झूठी शिकायतें करने में माहिर अर्थात् निष्णात होता है। वह पानी में भी आग लगा सकता है, निर्दोष में भी दोष खोज लेता है, झूठे लांछन लगा कर व्यर्थ की शंकाएं उत्पन्न कर देता है।

मुनि श्री श्रोताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए आगे कहते हैं कि आपको एक बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। जब कोई व्यक्ति आपको किसी के बारे में दोषयुक्त बातें बताना चाहता है तो समझ लेना कि वह आपके मन में ज़हर भरना चाहता है, कोई गंदगी फैला कर आपके पावन जीवन को दूषित करना चाहता है, आप के घर में आग लगाना चाहता है, आपकी शांति भंग करना चाहता है, आपकी खुशियों को लूट लेना चाहता है। आपके जीवन की बगिया में बसन्त की जगह पतझड़ लाना चाहता है। आपकी विचार-गंगा दूषित हो जाएगी। जीवन-सुमन मुरझा जाएगा और परमार्थ यात्रा पाप के पथ पर चलने लगेगी।

अंत में मुनि श्री कहते हैं कि पाप के प्रति सचेत रहना। यदि मन में बुरी कल्पनाएं, बुरे विचार आने लग जाएं तो उन पर नियंत्रण करना असम्भव हो जाता है। इसका एक ही उपाय है कि चुगलखोर को अपने पास भी न फटकने दो। किसी बात की सत्यता या असत्यता को स्वयं परखो, किसी के कहने से नहीं। अपनी मनोभूमि में किसी प्रकार की शंका या संदेह का बीज प्रस्फुटित ही न होने दो। यदि किसी के प्रति संदेह हो भी जाए तो उसे प्रायश्चित के जल से धो डालो।

प्रायश्चित एक ऐसी सरिता है जिसमें अवगाहन करके अपराधी स्वयं को पवित्र बना लेता है। प्रायश्चित के उपरांत पुनः संदेह न करना ही सच्चा प्रायश्चित है। प्रायश्चित की तीन सीढ़ीयाँ होती हैं। सर्वप्रथम आत्मग्लानि उत्पन्न होना, दूसरी सीढ़ी दोबारा ऐसा न करने का निश्चय करना और तीसरी उपलब्धि है आत्म-शुद्धि होना। पाप के बाद कोरा प्रायश्चित कार्यकारी नहीं होता जब तक उसे पुनः न करने का प्रण न ले लो। अतः न संदेह को उत्पन्न होने दो, न किसी के प्रति शंका को जन्म लेने दो।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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