कर्म-बंधः क्यों और कैसे - 2

मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज

कर्म-बंधः क्यों और कैसे - 2

ज्ञानावरणी कर्म - पदार्थों का जानना ही ज्ञान है। जो कर्म आत्मा की ज्ञान शक्ति को आच्छादित करे, उसे ज्ञानावरण कहते हैं। जैसे कोल्हू के बैल की आँखों पर लगी हुई पट्टी ज्ञान शक्ति में बाधा डालती है, उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म आत्मा को पदार्थ का ज्ञान करने में बाधा डालता है।

दर्शनावरणी कर्म - आत्मा की दर्शन शक्ति को ढकने वाला कर्म है - दर्शनावरण। दर्शनावरण कर्म पहरेदार के समान है। जिस प्रकार द्वारपाल राजा के दर्शन के लिए आने वाले व्यक्ति को राजा के दर्शन की अनुमति नहीं देता, उसी प्रकार दर्शनावरणी कर्म आत्मा को पदार्थों के दर्शन करने में अड़चन डालता है।

वेदनीय कर्म - यह साता वेदनीय और असाता वेदनीय रूप से दो प्रकार का है। साता वेदनीय के उदय से जीव सांसारिकता के अनुकूल विषय, भोजन, वस्त्र आदि तथा शारीरिक, मानसिक सुख का अनुभव करता है और असाता वेदनीय कर्म का उदय होने पर प्रतिकूल विषयों का संयोग होने पर दुःख का अनुभव करता है। वेदनीय कर्म और उससे प्राप्त सुख आदि साता वेदनीय कर्म शहद से लिप्त तलवार की धार को जीभ से चाटने के समान हैं और असाता वेदनीय कर्म के उदय में चाटते समय तलवार की धार से जीभ कटने के समान पीड़ा होती है।

वेदनीय कर्म को मधुलिप्त तलवार की उपमा देने का यही अर्थ है कि संसार के सभी सुख, दुःख से मिश्रित हैं अर्थात् सुख थोड़े हैं और दुःख अधिक। 

स्वणमित सुक्ख बहुकाल दुक्ख।

सांसारिक सुख अल्पकाल का है, दुःख दीर्घ काल तक रहता है। 

मोहनीय कर्म - मोह आत्मा के हित अहित को पहचानने और तदनुसार आचरण करने की बुद्धि को विकृत करता है। जिसके कारण आत्मा राग-द्वेष, काम-क्रोध, मद-लोभ आदि विकारों में प्रवृत्त रहने लगता है। मोहनीय कर्म मदिरा के समान है। जैसे मदिरा मनुष्य की बुद्धि को मूर्च्छित करके उसे मूढ़ और बेसुध कर देता है, वैसे ही मोह से मनुष्य की विवेक बुद्धि नष्ट हो जाती है। उसे अपने कर्त्तव्य -अकर्त्तव्य का कोई ज्ञान नहीं रहता। इसी प्रकार मोहनीय कर्म आत्मा के ज्ञान स्वभाव को विकृत बना देता है, जिससे वह अपने आपको भूलकर पुत्र, पुत्री, स्त्री, धन, मकान आदि पर पदार्थों को अपना समझने लगता है, उनमें ममत्व बुद्धि रखने लगता है और उनका संयोग होने पर सुख तथा वियोग हो जाने पर दुःख, शोक का अनुभव करता है।

आठ कर्मों में मोहनीय कर्म सबसे भयंकर और बलवान है। मोहनीय कर्म दो प्रकार का है - दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। 

दर्शन मोहनीय आत्मा के शुद्ध दर्शन सम्यक्त्व (श्रद्धा) गुण को विकृत बना देता है। इस कर्म के उदय से आत्मा शरीर, स्त्री, पुत्र आदि पर पदार्थों को अपना समझने लगता है। 

चारित्र मोहनीय कर्म आत्मा के चारित्र गुण को मूर्च्छित करता है। इसके कारण आत्मा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, साधु, गृहस्थ-धर्म आदि सदाचार के मार्ग पर नहीं चल सकता।

आयु कर्म - आयु कर्म की स्थिति से प्राणी जीवित रहता है और क्षय होने पर मर जाता है। इस कर्म का स्वभाव कारागार में बंद सुखोपभोगी मनुष्य के समान है जो वहाँ भी अधिक से अधिक सुख के साधन भोगना चाहते हैं और जीने की उत्कृष्ट इच्छा रखते हैं किंतु आयु के पूर्ण होने पर सब कुछ छोड़ कर जाना पड़ता है।

नामकर्म - नामकर्म जीव को एक योनि से दूसरी योनि में ले जाता है। यह कर्म चित्रकार के समान है। जैसे चित्रकार मनुष्य, हाथी, घोड़े, गाय, भैंस आदि नाना प्रकार के चित्र बनाता है वैसे ही नामकर्म भी देव, नारकी, मनुष्य, तिर्यंच आदि के शरीर का निर्माण करता है। 

नामकर्म के शुभ और अशुभ दो भेद हैं। शुभ नामकर्म से सुंदर, सुडौल, आकर्षक, प्रभावशाली गुणों से युक्त शरीर मिलता है और अशुभ नामकर्म से बदसूरत, बेडौल, कुरूप शरीर मिलता है।

गोत्र कर्म - गोत्र कर्म जीव की उस स्थिति का निर्धारण करता है जिसके कारण जीव ऐसे कुल, जाति, परिवार आदि में जन्म लेता है जिसमें जन्म लेने से वह ऊँचा या नीचा समझा जाता है। इस कर्म की तुलना कुम्हार से की जाती है। जैसे कुम्हार अनेक प्रकार के घड़े बनाता है। उनमें कुछ घड़े ऐसे होते हैं जिनको लोग कलश बना कर अक्षत, चंदन से पूजते हैं और कुछ घड़े ऐसे होते हैं जो मदिरा आदि रखने के काम में आने से निंद्य समझे जाते हैं। 

गोत्र कर्म के उच्च गोत्र व नीच गोत्र - ये दो भेद होते हैं। जिस कर्म के कारण जीव उत्तम, संस्कारी कुल में जन्म लेता है उसे उच्च गोत्र तथा जिस कर्म के कारण जीव नीच, लोक निंदनीय कुल में जन्म लेता है उसे नीच गोत्र कहते हैं।

अंतराय कर्म - इस कर्म के उदय से जीव की दान, लाभ, उपभोग और वीर्य (शक्ति) संबंधी शक्तियों में रुकावट या बाधा आती है। अंतराय का अर्थ है - विघ्न डालना। इसके कारण आत्मा का अनंत बल, सामर्थ्य कुछ ही अंशों में प्रतिभासित होता है। मनुष्य की संकल्प-शक्ति, साहस, वीरता, सुख-साधन आदि की अधिकता व न्यूनता इसी कर्म के कारण होती  है। 

अंतराय कर्म कोषाध्यक्ष के समान है। जैसे राजा की आज्ञा होते हुए भी भंडारी के प्रतिकूल होने पर इच्छित धन-प्राप्ति में बाधा पड़ जाती है, उसी प्रकार आत्मा रूपी राजा की दान-लाभ आदि की अनंत शक्ति होते हुए भी अंतराय कर्म के कारण जीव को प्रयत्न करने पर भी लाभ नहीं मिलता। संसार में जो भी सुख-दुःख, संकट, आपत्तियाँ हैं, उनका कारण हम स्वयं ही हैं। संकट व आपत्तियों से मुक्त होना हमारे ही हाथ में है। सत्कर्म सुख का कारण है और दुष्कर्म दुःख का। जैसा पुरुषार्थ होगा वैसा ही भाग्य बनेगा। भाग्य से पुरुषार्थ अधिक बलवान है। प्रत्येक आत्मा कर्म से मुक्त होकर सत्, चित्, आनंद स्वरूप को प्राप्त करने में समर्थ है। 

कर्म फल का भोग अवश्यंभावी है। कर्म फल की प्राप्ति ईश्वराधीन नहीं है। प्रवचन का समय हो चुका है। अंत में एक मुक्तक सुना कर विराम लेंगे -

दोपहर का सूरज शाम को ढल जाएगा,

समय आने पर ताज़ा फल भी सड़ जाएगा,

साधु की निंदा करने वाले को मिलता तो कुछ नहीं,

बल्कि उनका पुण्य ही सड़-गल जाएगा।


ओऽम् शांति सर्व शांति!!

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