संतों का संग : सत्संग
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
संतों का संग : सत्संग
यदि हम किसी तीर्थ की यात्रा करना चाहते हैं तो पहले तो दिन और समय निश्चित करना पड़ेगा। फिर उसके लिए ढेर सारी तैयारी करनी पड़ती है। अटैची लगाओ, कहीं कोई सामान छूट न जाए। ट्रेन या बस की टिकट बुक कराओ। समय पर स्टेशन पहुँचो। रास्ते की तकलीफें झेल कर ही हम तीर्थ की वन्दना का पुण्य प्राप्त कर सकते हैं।
इसके विपरीत संत, जो आपके ही नगर में विराजमान हैं, उनके दर्शन करने हों तो कोई विशेष तैयारी नहीं करनी पड़ती। जैसे अपने ऑफिस या दुकान पर जाने के लिए तैयार होते हो, उसी प्रकार तैयार होकर, केवल कुछ अतिरिक्त समय लगा कर हम उनके दर्शन करके उतना ही पुण्य प्राप्त कर सकते हैं जितना तीर्थ की वन्दना करने से होता है।
इस प्रकार संत एक चलते-फिरते तीर्थ के समान हैं। संतों की संगति पुण्य के संयोग से ही प्राप्त होती है। हर शुभ क्रिया पुण्य के उदय से होती है।
दो प्रकार के कर्म होते हैं जो हमें सुख व दुख देते हैं। साता कर्म का उदय हो तो स्वस्थ शरीर, सम्पत्ति, धन, वैभव, यश आदि मिलते हैं और असाता कर्म का उदय हो तो बीमारी आदि का दुख झेलना पड़ता है। हाथ में आई धन-संपत्ति भी पानी की तरह हाथ से निकल जाती है। असाता कर्म के उदय से तन-मन में बेचैनी होने लगती है।
अभी आप पंखे की ठंडी हवा के नीचे बैठे हो। गर्मी से पसीना आ रहा हो तो यही हवा ठंडक देगी और कोई बुखार से पीड़ित हो तो यह हवा उसे शूल की तरह चुभती हुई प्रतीत होगी। सुख को भोग पाना साता कर्म का उदय है और सुख की सामग्री होते हुए भी न भोग पाना असाता कर्म का उदय है।
यदि असाता कर्म को साता कर्म में बदलना चाहते हो तो संतों की संगति करो।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
सही मे संत हमे असाता कर्म मे जीने की कला सिखाते है
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