जीवन को नर्क नहीं, स्वर्ग बनाओ
मुनि श्री विरंजन सागर जी महाराज
जीवन को नर्क नहीं, स्वर्ग बनाओ
क्या आप मरने के बाद स्वर्ग जाना चाहते हैं?
हाँ!
क्या आप जीते-जी स्वर्ग की अनुभूति करना चाहते हैं?
हाँ! जी हाँ!!
तो हम उसका उपाय आपको बताते हैं। आप अपने जीवन को नर्क नहीं, स्वर्ग बनाओ। आप स्वयं अपने घर को स्वर्ग में बदल सकते हैं।
हम दिन-भर में अनेक लोगों से मिलते हैं। किसी को देखकर मन में मित्रता का भाव आता है और किसी को देखकर मन में दबा हुआ पुराना वैर-विरोध जागृत हो जाता है। यदि हम अपने जीवन को स्वर्ग बनाना चाहते हैं तो इस वैर-विरोध की प्रवृत्ति को समाप्त कर दो।
क्या किसी से शत्रुता का भाव करने से शत्रुता समाप्त हो जाएगी? क्या ऐसे भाव का परिणाम शांति और सुख देने वाला होगा?
आप शांतचित्त होकर बैठो और विचार करो कि आज जिसे हम शत्रु समझ रहे हैं, हो सकता है कि हमारे व्यवहार से प्रभावित होकर कल वह हमसे मित्रवत् व्यवहार करने लगे। दुनिया में किसी से वैर-विरोध रख कर हमें क्या लाभ होगा? हाँ! हानि होने की संभावना तो शत-प्रतिशत है।
यह प्रतिशोध की भावना हमारे आत्म-शोध में बाधक बन जाएगी और हम स्वर्ग-सुख की अनुभूति से वंचित रह जाएंगे।
फिर तो हमें अपने जीवन में चारों ओर नर्क का वातावरण ही दिखाई देगा। समय पाकर हमारी पर्याय बदल जाएगी, परिणाम बदल जाएंगे, पर अपने वैर-भाव के द्वारा जो शत्रुता का कर्मबंध कर लिया है, वह तो हर पर्याय में हमारे साथ रहेगा और हमें नर्क की अनुभूति कराता रहेगा।
भवभ्रमण में हमारे साथ उन्हीं जीवों का सम्बन्ध बार-बार बनता रहेगा जो किसी जन्म में या तो हमारे मित्र थे या शत्रु।
हम यह भी कह सकते हैं कि ये सम्बन्ध हमारे हाथ में तो नहीं हैं। हम आराम से सड़क पर जा रहे हैं और कोई अचानक आकर हमसे टकरा जाए तो इसमें हम क्या कर सकते हैं? लेकिन शास्त्रों के अनुसार कोई भी कार्य, कारण के बिना नहीं होता। हमने कभी उसके प्रति कषाय का भाव रखा होगा, तभी तो वह आकर हमसे टकराया और हमें घायल करके चला गया।
कषाय करना या न करना तो हमारे हाथ में है न! यदि हमारे भाव संयम रखने के हैं तो उसकी परिणति भी शुभ फलदायक ही होगी। यदि हम अपने परिणामों को ही अपने नियन्त्रण में नहीं रख पाए तो सारे जगत को अपने अनुसार नियन्त्रण में कैसे रख पाएंगे?
परिणाम नियन्त्रण में रखने के लिए अपनी पाँचों इन्द्रियों को अपने वश में रखना अति आवश्यक है। सबसे अधिक वैर-विरोध बढ़ता है अपशब्द बोलने के कारण। जिह्वा की पहरेदारी के लिए उसे 32 तालों के भीतर रखा गया है। जानते हो न 32 तालों का मतलब! ये हमारे 32 दांत जल्दी से जीभ को बाहर नहीं आने देते। इनके ऊपर भी दो ओष्ठों के कपाट लगाए गए हैं।
इतनी शत्रुता कान से सुनकर पैदा नहीं होती, जितनी दुर्वचन बोलने से बढ़ती है।
तभी कहते हैं कि मुख और आँख को बंद किया जा सकता है क्योंकि उन पर ढक्कन लगे हुए हैं। आँखों पर पलकें बंद करके नियन्त्रण में किया जा सकता हैे, मुख को ओंठ बंद करके नियन्त्रित कर सकते हैं पर कानों के द्वारा बाहर से आने वाली आवाज़ हमारे मन को अन्दर तक उद्वेलित कर देती है और वही वैर-विरोध का कारण बन जाती है।
इससे पहले कि बाहर की आवाज़ें हमारे आत्म-शोध में बाधा डालें, हम स्वयं अपने भीतर उतर जाएं। जैसे यदि आप किसी मन्दिर के सामने से गुज़र रहे हों तो वहाँ से आने वाली घण्टियों की सुमधुर आवाज़ और सुगन्धित धूप की खुशबू आपको स्वर्ग के वातावरण का अहसास कराती है और आप उसकी ओर खिंचे चले जाते हो, उस सुख का अनुभव करने। साधना से ही साध्य के दर्शन होते हैं।
दूसरी ओर किसी के घर से लड़ाई-झगड़े और मारने-पीटने का शोर सुनाई दे तो आप समझ जाते हो कि यहाँ रहने वाले नर्क जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। आपका मन वितृष्णा से भर जाता है और आप शीघ्रातिशीघ्र वहाँ से दूर हट जाना चाहते हो। जहाँ प्रेम का प्रभात नहीं, वात्सल्य की रसधार नहीं, वही नर्क है। जहाँ क्लेश की चीत्कार और झगड़े की टंकार हो, तो बस! समझ लो कि यही नर्क है और इस घर में रहने वाले नारकी हैं।
अब यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप वैर-विरोध का भाव करके नर्क में रहना चाहते हो या सभी से मैत्री-भाव रखकर स्वर्ग की अनुभूति करना चाहते हो।
यह सदैव याद रखो कि हम नर्क के रास्ते पर चल कर स्वर्ग नहीं पहुँच सकते।
ओऽम् शांति सर्व शांति!!
Super
ReplyDeletevery nice post
ReplyDelete